वांछित मन्त्र चुनें

स्ती॒र्णे ब॒र्हिषि॑ समिधा॒ने अ॒ग्नौ सू॒क्तेन॑ म॒हा नम॒सा वि॑वासे। अ॒स्मिन्नो॑ अ॒द्य वि॒दथे॑ यजत्रा॒ विश्वे॑ देवा ह॒विषि॑ मादयध्वम् ॥१७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

stīrṇe barhiṣi samidhāne agnau sūktena mahā namasā vivāse | asmin no adya vidathe yajatrā viśve devā haviṣi mādayadhvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्ती॒र्णे। ब॒र्हिषि॑। स॒म्ऽइ॒धा॒ने। अ॒ग्नौ। सु॒ऽउ॒क्तेन॑। म॒हा। नम॑सा। वि॒वा॒से॒। अ॒स्मिन्। नः॒। अ॒द्य। वि॒दथे॑। य॒ज॒त्राः॒। विश्वे॑। दे॒वाः॒। ह॒विषि॑। मा॒द॒य॒ध्व॒म् ॥१७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:52» मन्त्र:17 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:16» मन्त्र:7 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:17


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कौन इस संसार में आनन्द देनेवाले होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यजत्राः) सङ्ग करानेवालो (विश्वे, देवा) सब विद्वानो ! तुम (अद्य) आज के दिन (अस्मिन्) इस (विदथे) विज्ञानमय यज्ञ में जैसे मैं (सूक्तेन) वेदमन्त्रसमूह से (महा, नमसा) अन्नादि समूह से (स्तीर्णे) इन्धनादि से आच्छादित (बर्हिषि) यज्ञकुण्ड में (समिधाने) प्रदीप्त (अग्नौ) अग्नि के बीच (आ, विवासे) सब ओर से सेवन करूँ, वैसे (नः) हम लोगों के (हविषि) देने वा भोजन करने योग्य अन्नादि पदार्थों में (मादयध्वम्) सुखी करो ॥१७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे इन्धनों से प्रदीप्त अग्नि में वेदमन्त्रों से सुगन्ध्यादियुक्त होम किया पदार्थ सब जगत् को सुखी करता है, वैसे सुपात्र में विद्वानों की बोई हुई विद्या सब जगत् को आनन्दित करती है ॥१७॥ इस सूक्त में विश्वेदेवों के गुणों का वर्णन होने से इससूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बावनवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः केऽत्राऽनन्दप्रदाः सन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे यजत्रा विश्वे देवा ! यूयमद्याऽस्मिन् विदथे यथाऽहं सूक्तेन महा नमसा स्तीर्णे बर्हिषि समिधानेऽग्नावा विवासे तथा नो हविषि मादयध्वम् ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्तीर्णे) इन्धनादिभिराच्छादिते (बर्हिषे) यज्ञकुण्डे (समिधाने) प्रदीप्ते (अग्नौ) पावके (सूक्तेन) वेदमन्त्रसमूहेन (महा) महता (नमसा) अन्नादिना (आ, विवासे) सेवेय (अस्मिन्) (नः) अस्मान् (अद्य) अस्मिन् अहनि (विदथे) विज्ञानमये यज्ञे (यजत्राः) सङ्गमयितारः (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (हविषि) दातव्येऽत्तव्ये वाऽन्नादौ (मादयध्वम्) सुखयत ॥१७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथेन्धनैः प्रदीप्तेऽग्नौ वेदमन्त्रैः सुगन्ध्यादियुक्तं हुतं द्रव्यं सर्वं जगत् सुखयति तथा सुपात्रेषु विद्वद्भिरुप्ता विद्या जगदानन्दयतीति ॥१७॥ अत्र विश्वेदेवगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्विपञ्चाशत्तमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा इंधनांनी प्रदीप्त झालेल्या अग्नीत वेदमंत्राने होय केलेला सुगंधित पदार्थ सर्व जगाला सुखी करतो तशी विद्वानांनी सुपात्रात रुजविलेली विद्या सर्व जगाला आनंदित करते. ॥ १७ ॥